मेरी गोरी
फिरंगन , मैं और मेरे शहर वाले
उस गोरी चमड़ी वाली लड़की को सब
"उस छोकरे के साथ घूमने वाली फिरंगन "
के नाम से जानते थे ,
यही उसका नाम बन गया था उस शहर में
जब भी उसके बारे में बात होती
यही कहा जाता
"उस छोकरे के साथ घूमने वाली फिरंगन "
अजीब सी बात थी ना
की बात उसकी होती
और ज़िक्र "उस छोकरे " का
जैसे मेरे शहर वालों को
उस फिरंगन से कोई सरोकार नहीं था
बस मतलब था तो था "उस छोकरे " से
या शायद ये थी ईर्ष्या की 'वो छोकरा '
कैसे सभी सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ते हुए
खुल्लमखुल्ला 'गुलछर्रे ' उड़ा रहा था ...
यह बात सत्य से कोसों दूर थी
मैं ऐसा कह सकता हूँ
क्यूंकि 'वो छोकरा ' मैं था
तब 'भारतीय पर्यटन ' ने
'अतिथि देवो भव' का नारा नहीं छेड़ा था
उसके -मेरे मिलने के हालात का ज़िक्र
फिर कभी किसी और कविता में ,
यंहा सिर्फ ये सुनो की उसे मेरी ज़रूरत थी
और मुझे ज़रूरत थी
मेरे देशवासियों द्वारा उसके साथ किये दुर्व्यवहार का
खामियाजा चुकाने की ...
इस प्रयास में 'वो छोकरा ' और "वो फिरंगन '
बन गए थे अति -विशिष्ट -घनिष्ट मित्र
क्या संस्कृति क्या देश , क्या भाषा क्या वेश
आत्मीयता से भरपूर जीवन को जीते
एक दूजे की मधुर वाणी का रस पीते
वासना से दूर , हवास के परे
खोलते रिश्तों की नयी परतें
परिस्थितियाँ कुछ यूं बनी
की उन्हें बिछड़ना पडा
फैसला था कडा
पर उनको ऐसा करना पडा
उसका जहाज़ जब तक आँखों से ओझल न हुआ
मैं उसे देखता रहा
मैं हिंदी में कुछ सोचता रहा यंहा
और वो अपनी भाषा जर्मन में वंहा
शब्द -शब्द मैंने उसे यही लिखा
शब्द -शब्द उसने मुझे यही लिखा
शब्द शब्द जो हमने लिखे थे....
'' प्रेम किसी भूगोल के नक़्शे सा नहीं है
ये उम्र , धर्म , देश सबसे परे है
फर्क नहीं पड़ता जो
साथ जिया -बिताया वक़्त कम था
दो व्यक्तियों का पूरा जीवन
कट सकता है उन पलों को यादकर "
इस -से पहले की मैं ये कहानी
अख्बार को लिख पाता
सरहदों के पार का
प्रेम का एक सन्देश पाठकों को दे पाता
शहर के अखबार ने ये छापा ..
"उस छोकरे के साथ घूमने वाली फिरंगन "
उस छोकरे को ठुकराकर चली गयी है
छोकरे की संकीर्णता , छोटे विचारों
और एक घुटन -भरी ज़िन्दगी से छुटकारा पा
वो अपने देश लौट गयी है "
( काल्पनिक)
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