किसी अजनबी छत की मुंडेर पर
इक दूजे का परिचय पाते
मैं और तुम /
हम तुम हुए कब के अपरिचित
और वो छत आज भी
कितनी जानी पहचानी ..
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उस खंडहर-नुमा इमारत की
छत की मुंडेर पर
तेरा मेरा सबसे छुपकर मिलना
वो रोजाना तार्रुफ़ का बढ़ते चले जाना
कभी सुबह तो कभी
शाम को मिलना ..
मेरे सवाल तेरे जवाब
मेरे जवाब तेरे सवाल
वस्ल में
सबका बिखरना
शाम का पिघल जाना
नशीली रात की आग़ोश में
हर शब तेरा
नए रंगों में निखरना ..
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