मैं ऐसा लिक्खूंगा
सोचता हूँ ग़म -ऐ -दौरा से जिस दम निबटूंगा
अपने रूठे हुए साजन के लिए एक नज़्म लिक्खूंगा
मुझे नहीं थीं कभी भी बदगुमानियां उनसे
उनको जो था मुझसे , मैं वो उनका भरम लिक्खूंगा
ज़माने ने रंजिश से भरकर राह में बिछाए कांटे
मुझे जो मिल गयी मंजिलें , उसे मौला का करम लिक्खूंगा
पूछा जो ऊपर वाले ने 'मुझको कंहा दफनाया जाए '
बिन आँख झपकाए मैं एकदम से अपना वतन लिक्खूंगा
हुजूम में रहकर कुछ भी न सीखा ये शायर "तनहा "
सहरा सी वीरान डगर को मैं अपना चमन लिक्खूंगा
No comments:
Post a Comment