कुछ कहना भी कोई जुर्म हो जैसे ...
दौड़ना बन चुका है निज़ाम यंहा का
आराम से चलना बड़ी मुश्किल पर ,
धूप का है चार सू दबदबा
है छाँव यंहा बड़ी मुश्किल पर .
मौसम में भी अब घुल चुका है
गुबार ज़माने भर का देखो ,
गुलिस्ताँ गुलिस्ताँ , कुम्हलाया कुम्हलाया
अब है बरसात यंहा बड़ी मुश्किल पर .
हर शख्स हर तरफ करे मनमानी
सुनने को कोई भी तैयार नहीं ,
किस -किस को भला क्या क्या समझायें
हैं अल्फाज़ यंहा बड़ी मुश्किल पर .
ग़लत देखो या देखो बुरा तुम
और ख़ामोश रहो तो बेहतर है ,
न पंहुचेगी तुम्हारी सदा कंही भी
है ऐतराज़ यंहा बड़ी मुश्किल पर .
धूप का है चार सू दबदबा
है छाँव यंहा बड़ी मुश्किल पर .
KUCHH KEHNA BHI KOI JURM HO JAISE...