Monday 10 June 2013



मेरी मोहब्बत के अफसाने का मामला कोई खास नहीं है /
उसी की तलाश में हूँ जिसके मिलने की कोई आस नहीं है

meri mohabbat ke afsane ka mamla koi khas nahi hai /
usee ki talash meiN huN jiske milne ki koi aas nahi hai

THE QUEST

किसी शहर में भी मुझको अपना कोई हमसफ़र न मिला
मकाँ ही मकाँ मिले हर तरफ अपना कोई घर न मिला
.
अंजान शहर में लोगों ने पा लिए रिश्ते कैसे ये बेशुमार
मुझको अपने ही घर में आशना कोई मगर ना मिला
.
मैं ही ग़ुलाम बनकर रहा अपनों का और गैरों का भी
मेरे आगे जो झुक जाता कभी ऐसा कोई सर न मिला
.
रुसवाईओं के शहर में सबसे ज़्यादा रुसवा भी मैं ही था
औ' तन्हाईयों के शहर में मुझसा तनहा कोई बशर न मिला

MOHABBAT

MOHABBAT ..

मोहब्बत क्या है ?..
मुझसे जो तुम पूछते हो " मोहब्बत की हकीक़त"
तो क्या मैं मान लूं
जो मैं कहूँगा  वो तुम मानोगे
जो अब तलक माना है तुमने
क्या उसे छोड़कर कुछ और जानोगे ?

मोहब्बत की हकीक़त --
ये नहीं है किसी मंदिर में
सुबह और शाम की आरती जैसी
और न ही मस्जिद में
पांच वक़्त नमाज़ पढ़ लेने जैसी है
ये नहीं है ढोंग आडम्बर या दिखावा ही कोई
ये नहीं है किसी भी
पल दो पल की ख़ुशी जैसी
मौजूद  रहती है ये हर पल
पर दिखाई नहीं देती
बिन रुके जो मुसलसल
बहती रहे रूह में बेखुदी जैसी

मोहब्बत की हकीक़त --
ये किसी से नहीं है पर इससे हैं सब
कहकशां चाँद तारे मैं और तुम
फूल में भी और खार में भी ये
ये है किसी जादूगरी जैसी
तालीम इसकी हर कंही
पर इसकी नहीं कोई किताब
आज़ाद है हर दायरे  से
ये नहीं मजबूरी के जैसी
इस पर नहीं है जोर पैसे का या ताक़त का
नाज़ुक होकर भी सनम
ये है फौलाद के जैसी

मोहब्बत की हकीक़त --

एक से है ये तो ये "नहीं है"
सबसे ग़र ये है तो "है"
इसमे नहीं है तेरा मेरा
"हम" हैं जिसमें ये वैसी है
बोलो क्या तुम अपनी 'सोच' को
थोडा बदल भी पाओगे
ज़र्रे ज़र्रे को दोगे चाहत
क्या अपनी औलाद के जैसी ?

जो हम तुम जानते हैं
उसको मोहब्बत मानती नहीं है
इसको मालूम ही नहीं है शै कोई
हिन्दू और मुस्लमान के जैसी
ये है बेहद  भोली भाली सी
सच्चे किसी इंसान के जैसी

ये है बेहद  भोली भाली सी
सच्चे किसी इंसान के जैसी ..