त्रिशंकु ..
मैं त्रिशंकु ही रहा..
अधर में लटका हुआ सा
न इधर का
न उधर का..
सब कुछ पाकर भी
कुछ न पा सका
एक अजीब सी तृष्णा लिए
न सो पाया
न जग सका..
दूर क्षितिज पर
संतुष्टि को ताकता रहा
समेट ना सका
अपने बिखरे हुए " मैं" को..
हर यात्रा अधूरी
हर सम्बन्ध उबाऊ
न चाह किसी चीज़ की
न विरक्ति ही किसी चीज़ से..
ऐसी मनोदशा लेकर भला
मैं रहता भी कंहा का ??..
मैं त्रिशंकु ही रहा..
बहुत खूब तन्हा जी ..... इंसान त्रिशंकु बना रहता है जीवन को जीने की खातिर ....
ReplyDeleteहर यात्रा अधूरी
ReplyDeleteहर सम्बन्ध उबाऊ
न चाह किसी चीज़ की
न विरक्ति ही किसी चीज़ से..
ऐसी मनोदशा लेकर भला
मैं रहता भी कंहा का ??..
मैं त्रिशंकु ही रहा..
लगभग सभी की स्थिति यही है.....!!